Sunday, September 7, 2008

शाम.....


शाम का धुन्धुलापण छाने लगा था ,
कहीं कुछ बीता ,छूटा याद आने लगा था ,
पलट गए वोह पन्ने जो ज़िन्दगी के ,
जो अब तक कहीं सोने लगा था ,
सामने सब किरदार आ खड़े हुए ,
जो किस्सा अब खत्म होने लगा था ,
फिर से किस्सा अपना हुआ जो ,
अपना होके भी बेगाना बना था ,
मिला वो रास्ता प्यार का ,
जो अपनी पगडण्डी को खाने लगा था ,
दरख्तों ने साए कर दिए हमपर ,
जो पत्तों के बिना जीने लगा था...........

1 comment:

डॉ .अनुराग said...

फिर से किस्सा अपना हुआ जो ,
अपना होके भी बेगाना बना था ,
मिला वो रास्ता प्यार का ,
जो अपनी पगडण्डी को खाने लगा था ,
दरख्तों ने साए कर दिए हमपर ,
जो पत्तों के बिना जीने लगा था.......

bahut khoob....bahut achhe.....