शाम ढलते ही फ्हिर सब शांत हो गया ,
न निकले कोई दिन ये ख्याल सा हो गया ,
शब्द न निकले लबों से तुमाहरे पर,
आंखों का अपनापन भी न जाने कहाँ खो गया ,
ढूँढा बहुत अपने अंदर , हर तरफ़
पर न जाने वो भरोसा कहाँ खो गया ,
इंकार भी तो नै किया तूमने
बस इकरार बदहवास हो गया,
पता नही क्या रिश्ता था ,
न मालूम कहाँ क्या खो गया ,
जब कभी आएगी याद और आंख भर जायेगी,
हम समझ लेंगे की ज़िन्दगी को हमने भी थोड़ा बहुत जी लिया .